आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं
सामान सौ बरस का है पल की ख़बर नहीं
आ जाएँ रोब-ए-ग़ैर में हम वो बशर नहीं
कुछ आप की तरह हमें लोगों का डर नहीं
इक तो शब-ए-फ़िराक़ के सदमे हैं जाँ-गुदाज़
अंधेर इस पे ये है कि होती सहर नहीं
क्या कहिए इस तरह के तलव्वुन-मिज़ाज को
वादे का है ये हाल इधर हाँ उधर नहीं
रखते क़दम जो वादी-ए-उल्फ़त में बे-धड़क
'हैरत' सिवा तुम्हारे किसी का जिगर नहीं
ग़ज़ल
आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं
हैरत इलाहाबादी