EN اردو
आग लगा दी पहले गुलों ने बाग़ में वो शादाबी की | शाही शायरी
aag laga di pahle gulon ne bagh mein wo shadabi ki

ग़ज़ल

आग लगा दी पहले गुलों ने बाग़ में वो शादाबी की

आग़ा हज्जू शरफ़

;

आग लगा दी पहले गुलों ने बाग़ में वो शादाबी की
आई ख़िज़ाँ गुलज़ार में जब गुल-बर्ग से गुलख़न-ताबी की

कुंज-ए-लहद में मुझ को सुला के पूछते हैं वो लोगों से
नींद उन्हें अब आ गई क्यूँ-कर क्या हुई जो बद-ख़्वाबी की

सोच में हैं कुछ पास नहीं किस तरह अदम तक पहुँचेंगे
आ के सफ़र दरपेश हुआ है फ़िक्र है बे-असबाबी की

अब्र है गिर्यां किस के लिए मल्बूस सियह है क्यूँ इस का
सोग-नशीं किस का है फ़लक क्या वज्ह अबा-ए-आबी की

ज़ेर-ए-महल उस शोख़ के जा के पाँव जो हम ने फैलाए
शर्म-ओ-हया ने उठने न दी चिलमन जो छुटी महताबी की

दिल का ठिकाना क्या मैं बताऊँ हाल न इस का कुछ पूछो
दूर करो होगा वो कहीं गलियों में और सई हर बाबी की

दिल न हुआ पहले जो बिस्मिल लोटने से क्या मतलब था
धूम थी जब ख़ुश-बाशियों की अब शोहरत है बेताबी की

शम्ओं का आख़िर हाल ये पहुँचा सब्र पड़ा परवानों का
कव्वे उठा के ले गए दिन को पाई सज़ा सरताबी की

ग़ुंचे ख़जिल हैं ज़िक्र से उस के तंग दहन है ऐसा उस का
नाम हुआ उनक़ा-ए-ज़माना धूम उड़ी नायाबी की

बजरे लगाए लोगों ने ला के उन के बरामद होने को
अश्कों ने मेरे राह-ए-वफ़ा में आज तो वो सैलाबी की

ख़त नहीं पड़ता मेरे गले पर तिश्ना-ए-हसरत मरता हूँ
तेग़ तिरी बे-आब हुई थीं आरज़ूएँ ख़ुश-आबी की

रहम है लाज़िम तुझ को भी गुलचीं दिल न दुखा तू बुलबुल का
निकहत-ए-गुल ने उस से कशिश की ताब न थी बेताबी की

नज़'अ में या-रब ख़ंदा-जबीं हूँ रूह जो निकले ख़ुश निकले
पेश-ए-नज़र आएँ जो फ़रिश्ते सूरत हो आराबी की

कलग़ी की जा पर ताज में रख ले ज़ौक़ रहे पा-बोसी का
पाए अगर बिल्क़ीस कहीं तस्वीर तिरी गुरगाबी की

पढ़ के वज़ीफ़ा इश्क़ का उस के तुम जो तड़प के रोते हो
रूह न हो तहलील 'शरफ़' हसरत से किसी वहाबी की