आग जब ज़ख़्म-ए-जिगर बे-इंतिहा देने लगे
चारा-गर घबरा के उफ़ उफ़ की सदा देने लगे
अब कहाँ था मैं जो देता इस मोहब्बत का जवाब
जिस की तुर्बत देख ली मुझ को सदा देने लगे
दामन-ए-सब्र-ओ-तहम्मुल हाथ से ख़ुद छुट गया
टूट कर ज़ख़्मों के टाँके जब सदा देने लगे
हिज्र की रातों के सन्नाटे में उफ़ री बे-ख़ुदी
हम दिल-ए-गुम-गश्ता को अपनी सदा देने लगे
हाथ भी घबरा के मैं ने क़ल्ब-ए-नाज़ुक पर रखे
जब ज़रा सी चोट में शीशे सदा देने लगे
जांकनी का वक़्त भी बाक़ी रहे तुम भी रहो
देखने आए तो क्या अच्छी दग़ा देने लगे
मय-कदे में हम से मस्तों की ख़ुशी क्या रंज क्या
मिल गए दो-चार साग़र और दुआ देने लगे
मुनहसिर मरने पे हो जब सूरत-ए-तस्कीन-ए-दिल
कोसना मैं इस को समझूँ जो दुआ देने लगे
ज़ालिम-ओ-मज़लूम का महफ़िल में कल निकला था ज़िक्र
वो हमारा और हम उन का पता देने लगे
मरने वाले फिर न ऐ 'जावेद' खोलें अपनी आँख
गर क़सम बढ़ती हुई उन की हया देने लगे

ग़ज़ल
आग जब ज़ख़्म-ए-जिगर बे-इंतिहा देने लगे
जावेद लख़नवी