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आग जब ज़ख़्म-ए-जिगर बे-इंतिहा देने लगे | शाही शायरी
aag jab zaKHm-e-jigar be-intiha dene lage

ग़ज़ल

आग जब ज़ख़्म-ए-जिगर बे-इंतिहा देने लगे

जावेद लख़नवी

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आग जब ज़ख़्म-ए-जिगर बे-इंतिहा देने लगे
चारा-गर घबरा के उफ़ उफ़ की सदा देने लगे

अब कहाँ था मैं जो देता इस मोहब्बत का जवाब
जिस की तुर्बत देख ली मुझ को सदा देने लगे

दामन-ए-सब्र-ओ-तहम्मुल हाथ से ख़ुद छुट गया
टूट कर ज़ख़्मों के टाँके जब सदा देने लगे

हिज्र की रातों के सन्नाटे में उफ़ री बे-ख़ुदी
हम दिल-ए-गुम-गश्ता को अपनी सदा देने लगे

हाथ भी घबरा के मैं ने क़ल्ब-ए-नाज़ुक पर रखे
जब ज़रा सी चोट में शीशे सदा देने लगे

जांकनी का वक़्त भी बाक़ी रहे तुम भी रहो
देखने आए तो क्या अच्छी दग़ा देने लगे

मय-कदे में हम से मस्तों की ख़ुशी क्या रंज क्या
मिल गए दो-चार साग़र और दुआ देने लगे

मुनहसिर मरने पे हो जब सूरत-ए-तस्कीन-ए-दिल
कोसना मैं इस को समझूँ जो दुआ देने लगे

ज़ालिम-ओ-मज़लूम का महफ़िल में कल निकला था ज़िक्र
वो हमारा और हम उन का पता देने लगे

मरने वाले फिर न ऐ 'जावेद' खोलें अपनी आँख
गर क़सम बढ़ती हुई उन की हया देने लगे