आग है फैली हुई काली घटाओं की जगह
बद-दुआएँ हैं लबों पर अब दुआओं की जगह
इंतिख़ाब-ए-अहल-ए-गुलशन पर बहुत रोता है दिल
देख कर ज़ाग़-ओ-ज़ग़्न को ख़ुश-नवाओं की जगह
कुछ भी होता पर न होते पारा-पारा जिस्म-ओ-जाँ
राहज़न होते अगर उन रहनुमाओं की जगह
लुट गई इस दौर में अहल-ए-क़लम की आबरू
बिक रहे हैं अब सहाफ़ी बेसवाओं की जगह
कुछ तो आता हम को भी जाँ से गुज़रने का मज़ा
ग़ैर होते काश 'जालिब' आश्नाओं की जगह

ग़ज़ल
आग है फैली हुई काली घटाओं की जगह
हबीब जालिब