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आग चूल्हे की बुझी जाती है | शाही शायरी
aag chulhe ki bujhi jati hai

ग़ज़ल

आग चूल्हे की बुझी जाती है

अख़्तर होशियारपुरी

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आग चूल्हे की बुझी जाती है
चाँदनी है कि खिली जाती है

जिस क़दर नीचे उतरता हूँ मैं
झील भी गहरी हुई जाती है

गर्द उठी है जो मिरी ठोकर से
एक दीवार बनी जाती है

पहरे होंटों पे बिठाने वाले
बात आँखों से भी की जाती है

लोग साहिल पे खड़े देखते हैं
नाव काग़ज़ की बही जाती है