आग चूल्हे की बुझी जाती है
चाँदनी है कि खिली जाती है
जिस क़दर नीचे उतरता हूँ मैं
झील भी गहरी हुई जाती है
गर्द उठी है जो मिरी ठोकर से
एक दीवार बनी जाती है
पहरे होंटों पे बिठाने वाले
बात आँखों से भी की जाती है
लोग साहिल पे खड़े देखते हैं
नाव काग़ज़ की बही जाती है
ग़ज़ल
आग चूल्हे की बुझी जाती है
अख़्तर होशियारपुरी