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आफ़त शब-ए-तन्हाई की टल जाए तो अच्छा | शाही शायरी
aafat shab-e-tanhai ki Tal jae to achchha

ग़ज़ल

आफ़त शब-ए-तन्हाई की टल जाए तो अच्छा

रिन्द लखनवी

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आफ़त शब-ए-तन्हाई की टल जाए तो अच्छा
घबरा के जो दम आज निकल जाए तो अच्छा

ओ जान-ए-हज़ीं जाना है इक दिन तुझे आख़िर
अब जाए तो बेहतर है कि कल जाए तो अच्छा

झुकवा दिया सर ज़ोफ़ ने क़ातिल के क़दम पर
तलवार अगर उस की उगल जाए तो अच्छा

बेहतर नहीं है सूरत-ए-जानाँ का तसव्वुर
दिल और किसी शय से बहल जाए तो अच्छा

इक सिल है कलेजे पे नहीं रूह बदन में
छाती का पहाड़ आह पे टल जाए तो अच्छा

दीवाना अबस शहर की गलियों में है बर्बाद
मजनूँ किसी जंगल को निकल जाए तो अच्छा

ओ आतिश-ए-दिल फूँक दे तन अश्क बहा दे
बह जाए तो बेहतर है ये जल जाए तो अच्छा

हर मर्तबा डसने के इरादे में है वो ज़ुल्फ़
अज़दर ये अगर मुझ को निगल जाए तो अच्छा

फिर रुकना है दुश्वार ये जब आई तो आई
ऐसे में तबीअत जो सँभल जाए तो अच्छा

ताबूत मिरा थम के उठाओ मिरे यारो
वो भी कफ़-ए-अफ़्सोस जो मल जाए तो अच्छा

ऐ 'रिन्द' मिलो यार से या हाथ उठाओ
झगड़ा चुके हर शब का ख़लल जाए तो अच्छा