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आएँगे गर उन्हें ग़ैरत होगी | शाही शायरी
aaenge gar unhen ghairat hogi

ग़ज़ल

आएँगे गर उन्हें ग़ैरत होगी

बयान मेरठी

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आएँगे गर उन्हें ग़ैरत होगी
वो न आए तो क़यामत होगी

हश्र में कौन सुनेगा फ़रियाद
सद्द-ए-रह हद्द-ए-समाअ'त होगी

नंग-ए-नज़्ज़ारा है हम चश्मा-ए-आम
हम न देखेंगे जो रूयत होगी

यक तरफ़ हो के रहेंगे यक-रंग
हम को आराफ़ से नफ़रत होगी

शिकवा है दीन-ए-वफ़ा में एहदास
मुझ से काहे को ये बिदअ'त होगी

हैं क़यामत में ताम्मुल क्या क्या
वस्ल की कौन सी साअत होगी

रेग हूँ चाहिए दरिया-ए-शराब
मय-कदे पर न क़नाअत होगी

है शब-ए-वस्ल-ए-दो-आलम गेसू
वो जबीं सुब्ह-ए-शहादत होगी

बहर-ए-रहमत है दो-आलम को मुहीत
मेरे मशरब की सी वुसअ'त होगी

मय से आलूदा हुआ दामन-ए-हुस्न
मुत्तहिम ख़ून की तोहमत होगी

खींचता था कोई उन का दामन
ख़ाक में वस्ल की हसरत होगी

रास है चारा-ए-बिल-मिस्ल मुझे
क़ैद से और भी वहशत होगी

शो'ला-रू पढ़ते हैं कलिमा तेरा
शम्अ' अंगुश्त-ए-शहादत होगी

ग़ैर की आग में जलने न दिया
हुस्न की सी किसे ग़ैरत होगी

वाशुदा ग़ुंचा-ए-ख़ातिर मत माँग
मुंतशिर बू-ए-मोहब्बत होगी

ज़हर लगती है उन्हें मेरी हयात
क्यूँ कि मंज़ूर-ए-शहादत होगी

खा गए नर्गिस-ए-शहला का फ़रेब
कि उन आँखों में मुरव्वत होगी

तेरी ज़ुल्फ़ों ने चढ़ाए चिल्ले
दिल की इस कूचे में तुर्बत होगी

बन गए सात जहन्नुम तह-ए-ख़ाक
किस के पहलू में ये हिद्दत होगी

कहीं सर फोड़ के मर रहिए 'बयाँ'
इक जहाँ से तो फ़राग़त होगी