आए मशरिक़ से शहसवार बहुत
किस को था उन का इंतिज़ार बहुत
क़ाफ़िलों की कोई ख़बर सी नहीं
दूर उठता रहा ग़ुबार बहुत
सुब्ह होने तक उस ने जान न दी
उम्र भर था ख़ुद-इख़्तियार बहुत
फिर कोई सानेहा हुआ होगा
मेहरबाँ क्यूँ हैं ग़म-गुसार बहुत
क्यूँ है हर ज़र्रा कर्बला-मंज़र
है हमें उन पे ए'तिबार बहुत
हो गई सब के आगे रुस्वाई
किस हुनर पर था इफ़्तिख़ार बहुत

ग़ज़ल
आए मशरिक़ से शहसवार बहुत
हामिदी काश्मीरी