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आब ओ गिया से बे-नियाज़ सर्द जबीन-ए-कोह पर | शाही शायरी
aab o giya se be-niyaz sard jabin-e-koh par

ग़ज़ल

आब ओ गिया से बे-नियाज़ सर्द जबीन-ए-कोह पर

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

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आब ओ गिया से बे-नियाज़ सर्द जबीन-ए-कोह पर
गर्मी-ए-रू-ए-यार का अक्स भी राएगाँ गया

सतह पे ताज़ा फूल हैं कौन समझ सका ये राज़
आग किधर किधर लगी शोला कहाँ कहाँ गया

राज़-ए-ख़िरद हो कुछ भी अब राज़-ए-जुनूँ तो ये है बस
आँख थी बे-बसर रही तीर था बे-कमाँ गया

उम्र-ए-रवाँ की मंज़िलें तूल-ए-तवील मुख़्तसर
आप भी हम-सफ़र रहे ग़ैर भी हम-इनाँ गया