आब ओ गिया से बे-नियाज़ सर्द जबीन-ए-कोह पर
गर्मी-ए-रू-ए-यार का अक्स भी राएगाँ गया
सतह पे ताज़ा फूल हैं कौन समझ सका ये राज़
आग किधर किधर लगी शोला कहाँ कहाँ गया
राज़-ए-ख़िरद हो कुछ भी अब राज़-ए-जुनूँ तो ये है बस
आँख थी बे-बसर रही तीर था बे-कमाँ गया
उम्र-ए-रवाँ की मंज़िलें तूल-ए-तवील मुख़्तसर
आप भी हम-सफ़र रहे ग़ैर भी हम-इनाँ गया
ग़ज़ल
आब ओ गिया से बे-नियाज़ सर्द जबीन-ए-कोह पर
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी