आब-ओ-दाना तिरा ऐ बुलबुल-ए-ज़ार उठता है
फ़स्ल-ए-गुल जाती है सामान-ए-बहार उठता है
शैख़ भी मुज़्तरिब-उल-हाल पहुँच जाता है
जानिब-ए-मय-कदा जब अब्र-ए-बहार उठता है
मर्हबा बार-ए-अमानत के उठाने वाले
क्या कलेजा है तुम्हारा कि ये बार उठता है
ख़ार-ए-सहरा-ए-मोहब्बत की खटक क्या कहिए
जब क़दम उठता है अपना सर-ए-ख़ार उठता है
दूद-ए-आह-ए-दिल-ए-सोज़ाँ है 'मुबारक' अपना
जो धुआँ शम्अ से बलीन-ए-मज़ार उठता है
ग़ज़ल
आब-ओ-दाना तिरा ऐ बुलबुल-ए-ज़ार उठता है
मुबारक अज़ीमाबादी