आ मिरी चश्म-ए-पुर-ख़ुमार में आ
आ मिरे सीना-ए-फ़िगार में आ
आ कि तेरे बग़ैर कैफ़ नहीं
मेरी ग़म आफ़रीं बहार में आ
दिल को तेरे सदा क़रार नहीं
आ इस उजड़े हुए दयार में आ
रूह को ताब-ए-इंतिज़ार नहीं
मेरे तरसे हुए कनार में आ
दीदा-ए-तर पुकारते हैं तुझे
आ कभी बज़्म-ए-सोगवार में आ
आज 'मज़हर' तुझे पुकारता है
आज आ सहन-ए-लाला-ज़ार में आ
ग़ज़ल
आ मिरी चश्म-ए-पुर-ख़ुमार में आ
सय्यद मज़हर गिलानी