आ के पत्थर तो मिरे सहन में दो चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे
ऐसी दहशत थी फ़ज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे
मुझे गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरूँ
जिस तरह साया-ए-दीवार पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़ गए दिल में उजाले के ख़ुतूत
ये सितारे मिरे घर टूट के बेकार गिरे
क्या हवा हाथ में तलवार लिए फिरती थी
क्यूँ मुझे ढाल बनाने को ये छितनार गिरे
देख कर अपने दर-ओ-बाम लरज़ जाता हूँ
मिरे हम-साए में जब भी कोई दीवार गिरे
वक़्त की डोर ख़ुदा जाने कहाँ से टूटे
किस घड़ी सर पे ये लटकी हुई तलवार गिरे
हम से टकरा गई ख़ुद बढ़ के अँधेरे की चटान
हम सँभल कर जो बहुत चलते थे नाचार गिरे
क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मिरा चेहरा है
संग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे
हाथ आया नहीं कुछ रात की दलदल के सिवा
हाए किस मोड़ पे ख़्वाबों के परस्तार गिरे
वो तजल्ली की शुआएँ थीं कि जलते हुए पर
आइने टूट गए आइना-बरदार गिरे
देखते क्यूँ हो 'शकेब' इतनी बुलंदी की तरफ़
न उठाया करो सर को कि ये दस्तार गिरे
ग़ज़ल
आ के पत्थर तो मिरे सहन में दो चार गिरे
शकेब जलाली