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आ गया फिर रमज़ाँ क्या होगा | शाही शायरी
aa gaya phir ramazan kya hoga

ग़ज़ल

आ गया फिर रमज़ाँ क्या होगा

नज़्म तबा-तबाई

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आ गया फिर रमज़ाँ क्या होगा
हाए ऐ पीर-ए-मुग़ाँ क्या होगा

बाग़-ए-जन्नत में समाँ क्या होगा
तू नहीं जब तो वहाँ क्या होगा

ख़ुश वो होता है मिरे नालों से
और अंदाज़-ए-फ़ुग़ाँ क्या होगा

दूर की राह है सामाँ हैं बड़े
इतनी मोहलत है कहाँ क्या होगा

देख लो रंग-ए-परीदा को मिरे
दिल जलेगा तो धुआँ क्या होगा

होगा बस एक निगह में जो तमाम
वो ब-हसरत निगराँ क्या होगा

हम ने माना कि मिला मुल्क-ए-जहाँ
न रहे हम तो जहाँ क्या होगा

मर के जब ख़ाक में मिलना ठहरा
फिर ये तुर्बत का निशाँ क्या होगा

जिस तरह दिल हुआ टुकड़े अज़-ख़ुद
चाक इस तरह कताँ क्या होगा

या तिरा ज़िक्र है या नाम तिरा
और फिर विर्द-ए-ज़बाँ क्या होगा

इश्क़ से बाज़ न आना 'हैदर'
राज़ होने दे अयाँ क्या होगा