आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया
ऐ फ़लक क्या क्या हमारे दिल में अरमाँ रह गया
बाग़बाँ है चार दिन की बाग़-ए-आलम में बहार
फूल सब मुरझा गए ख़ाली बयाबाँ रह गया
इतना एहसाँ और कर लिल्लाह ऐ दस्त-ए-जुनूँ
बाक़ी गर्दन में फ़क़त तार-ए-गरेबाँ रह गया
याद आई जब तुम्हारे रूप रौशन की चमक
मैं सरासर सूरत-ए-आईना हैराँ रह गया
ले चले दो फूल भी इस बाग़-ए-आलम से न हम
वक़्त-ए-रहलत हैफ़ है ख़ाली ही दामाँ रह गया
मर गए हम पर न आए तुम ख़बर को ऐ सनम
हौसला अब दिल का दिल ही में मिरी जाँ रह गया
ना-तवानी ने दिखाया ज़ोर अपना ऐ 'रसा'
सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम मैं बस नुमायाँ रह गया
ग़ज़ल
आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया
भारतेंदु हरिश्चंद्र