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ए मरकज़-ए-ख़याल बिखरने लगा हूँ में | शाही शायरी
a markaz-e-KHayal bikharne laga hun mein

ग़ज़ल

ए मरकज़-ए-ख़याल बिखरने लगा हूँ में

फ़ारूक़ नाज़की

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ए मरकज़-ए-ख़याल बिखरने लगा हूँ में
अपने तसव्वुरात से डरने लगा हूँ में

इस दोपहर की धूप में साया भी खो गया
तन्हाइयों के दिल में उतरने लगा हूँ मैं

बर्दाश्त कर न पाऊँगा वहशत की रात को
ऐ शाम-ए-इंतिज़ार बिफरने लगा हूँ मैं

इस तीरगी में किर्मक-ए-शब-ताब भी नहीं
तारीकियों को रूह में भरने लगा हूँ मैं

अब दिल में तेरी याद की इक शम्अ तक नहीं
तारीक रास्तों से गुज़रने लगा हूँ मैं