ज़िंदगी मुझ को कहाँ ले आई है
सामने दरिया है पीछे खाई है
मुझ को ग़ैरों से नहीं शिकवा कोई
था जो अपना वो भी तो हरजाई है
बद-नसीबी को कोई अपनाए क्यूँ
फिर मिरी जानिब ही वो लौट आई है
बंद मुट्ठी में न जुगनू को करो
ढल गया है दिन तो फिर शब आई है
कुछ न पाएगा तू साहिल पर 'सहर'
जा वहीं पर जिस जगह गहराई है

ग़ज़ल
ज़िंदगी मुझ को कहाँ ले आई है
रमज़ान अली सहर