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ज़िंदगी मुझ को कहाँ ले आई है | शाही शायरी
zindagi mujhko kahan le aai hai

ग़ज़ल

ज़िंदगी मुझ को कहाँ ले आई है

रमज़ान अली सहर

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ज़िंदगी मुझ को कहाँ ले आई है
सामने दरिया है पीछे खाई है

मुझ को ग़ैरों से नहीं शिकवा कोई
था जो अपना वो भी तो हरजाई है

बद-नसीबी को कोई अपनाए क्यूँ
फिर मिरी जानिब ही वो लौट आई है

बंद मुट्ठी में न जुगनू को करो
ढल गया है दिन तो फिर शब आई है

कुछ न पाएगा तू साहिल पर 'सहर'
जा वहीं पर जिस जगह गहराई है