फ़स्ल-ए-गुल आते ही वहशत हो गई
फिर वही अपनी तबीअत हो गई
लाला माधव राम जौहर
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कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
कुछ मेरी वहशतों ने मुझे दर-ब-दर किया
साबिर ज़फ़र
जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है
कितनी वहशत हिज्र की लम्बी रात में होती है
शहरयार