सब को पहुँचा के उन की मंज़िल पर
आप रस्ते में रह गया हूँ मैं
अब्दुल हमीद अदम
सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में
मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही
अब्दुल हमीद अदम
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
अहमद फ़राज़
उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में
नज़र आती है उन को अपनी मंज़िल आसमानों में
अल्लामा इक़बाल
चला मैं जानिब-ए-मंज़िल तो ये हुआ मालूम
यक़ीं गुमान में गुम है गुमाँ है पोशीदा
अनवर सदीद
राहबर रहज़न न बन जाए कहीं इस सोच में
चुप खड़ा हूँ भूल कर रस्ते में मंज़िल का पता
आरज़ू लखनवी
एक मंज़िल है मगर राह कई हैं 'अज़हर'
सोचना ये है कि जाओगे किधर से पहले
अज़हर लखनवी