कैसे भूले हुए हैं गब्र ओ मुसलमाँ दोनों
दैर में बुत है न काबे में ख़ुदा रक्खा है
लाला माधव राम जौहर
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मैं दैर ओ हरम हो के तिरे कूचे में पहुँचा
दो मंज़िलों का फेर बस ऐ यार पड़ा है
लाला माधव राम जौहर
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सू-ए-काबा चलूँ कि जानिब-ए-दैर
इस दो-राहे पे दिल भटकता है
लाला माधव राम जौहर
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मय-ख़ाने में क्यूँ याद-ए-ख़ुदा होती है अक्सर
मस्जिद में तो ज़िक्र-ए-मय-ओ-मीना नहीं होता
रियाज़ ख़ैराबादी