बड़े सीधे-साधे बड़े भोले-भाले
कोई देखे इस वक़्त चेहरा तुम्हारा
आग़ा शाएर क़ज़लबाश
अब उस की शक्ल भी मुश्किल से याद आती है
वो जिस के नाम से होते न थे जुदा मिरे लब
अहमद मुश्ताक़
भूल गई वो शक्ल भी आख़िर
कब तक याद कोई रहता है
अहमद मुश्ताक़
इक रात चाँदनी मिरे बिस्तर पे आई थी
मैं ने तराश कर तिरा चेहरा बना दिया
अहमद मुश्ताक़
तश्बीह तिरे चेहरे को क्या दूँ गुल-ए-तर से
होता है शगुफ़्ता मगर इतना नहीं होता
अकबर इलाहाबादी
आ कि मैं देख लूँ खोया हुआ चेहरा अपना
मुझ से छुप कर मिरी तस्वीर बनाने वाले
अख़्तर सईद ख़ान
जिसे पढ़ते तो याद आता था तेरा फूल सा चेहरा
हमारी सब किताबों में इक ऐसा बाब रहता था
असअ'द बदायुनी