बुत बनाने पूजने फिर तोड़ने के वास्ते
ख़ुद-परस्ती को नया हर रोज़ पत्थर चाहिए
वहीद अख़्तर
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बिछड़े हुए ख़्वाब आ के पकड़ लेते हैं दामन
हर रास्ता परछाइयों ने रोक लिया है
वहीद अख़्तर
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बे-बरसे गुज़र जाते हैं उमडे हुए बादल
जैसे उन्हें मेरा ही पता याद नहीं है
वहीद अख़्तर
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बाम ओ दर ओ दीवार को ही घर नहीं कहते
तुम घर में नहीं हो तो मकाँ है भी नहीं भी
वहीद अख़्तर
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अब्र आँखों से उठे हैं तिरा दामन मिल जाए
हुक्म हो तेरा तो बरसात मुकम्मल हो जाए
वहीद अख़्तर
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