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साक़िब लखनवी शायरी | शाही शायरी

साक़िब लखनवी शेर

17 शेर

आधी से ज़ियादा शब-ए-ग़म काट चुका हूँ
अब भी अगर आ जाओ तो ये रात बड़ी है

साक़िब लखनवी




दीदा-ए-दोस्त तिरी चश्म-नुमाई की क़सम
मैं तो समझा था कि दर खुल गया मय-ख़ाने का

साक़िब लखनवी




चल ऐ हम-दम ज़रा साज़-ए-तरब की छेड़ भी सुन लें
अगर दिल बैठ जाएगा तो उठ आएँगे महफ़िल से

साक़िब लखनवी




बू-ए-गुल फूलों में रहती थी मगर रह न सकी
मैं तो काँटों में रहा और परेशाँ न हुआ

साक़िब लखनवी




बला से हो पामाल सारा ज़माना
न आए तुम्हें पाँव रखना सँभल कर

साक़िब लखनवी




बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे
जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे

साक़िब लखनवी




अपने दिल-ए-बेताब से मैं ख़ुद हूँ परेशाँ
क्या दूँ तुम्हें इल्ज़ाम मैं कुछ सोच रहा हूँ

साक़िब लखनवी




आप उठ रहे हैं क्यूँ मिरे आज़ार देख कर
दिल डूबते हैं हालत-ए-बीमार देख कर

साक़िब लखनवी