रिंदान-ए-इश्क़ छुट गए मज़हब की क़ैद से
घंटा रहा गले में न ज़ुन्नार रह गया
रिन्द लखनवी
रुतबा-ए-कुफ़्र है किस बात में कम ईमाँ से
शौकत-ए-काबा तो है शान-ए-कलीसा देखो
रिन्द लखनवी
शौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-दीदार में तेरे हमदम
जान आँखों में मिरी जान रहा करती है
रिन्द लखनवी
तबीअ'त को होगा क़लक़ चंद रोज़
ठहरते ठहरते ठहर जाएगी
रिन्द लखनवी
था मुक़द्दम इश्क़-ए-बुत इस्लाम पर तिफ़्ली में भी
या सनम कह कर पढ़ा मकतब में बिस्मिल्लाह को
रिन्द लखनवी
टूटे बुत मस्जिद बनी मिस्मार बुत-ख़ाना हुआ
जब तो इक सूरत भी थी अब साफ़ वीराना हुआ
रिन्द लखनवी
उदास देख के मुझ को चमन दिखाता है
कई बरस में हुआ है मिज़ाज-दाँ सय्याद
रिन्द लखनवी
वादे पे तुम न आए तो कुछ हम न मर गए
कहने को बात रह गई और दिन गुज़र गए
रिन्द लखनवी
ज़ुल्फ़ों की तरह उम्र बसर हो गई अपनी
हम ख़ाना-ब-दोशों को कहीं घर नहीं मिलता
रिन्द लखनवी