मरने को मर भी जाऊँ कोई मसअला नहीं
लेकिन ये तय तो हो कि अभी जी रहा हूँ मैं
नफ़स अम्बालवी
अब कहाँ तक पत्थरों की बंदगी करता फिरूँ
दिल से जिस दम भी पुकारूँगा ख़ुदा मिल जाएगा
नफ़स अम्बालवी
इस शहर में ख़्वाबों की इमारत नहीं बनती
बेहतर है कि ता'मीर का नक़्शा ही बदल लो
नफ़स अम्बालवी
इंकार कर रहा हूँ तो क़ीमत बुलंद है
बिकने पे आ गया तो गिरा देंगे दाम लोग
नफ़स अम्बालवी
हमें दुनिया फ़क़त काग़ज़ का इक टुकड़ा समझती है
पतंगों में अगर ढल जाएँ हम तो आसमाँ छू लें
नफ़स अम्बालवी
हमारी ज़िंदगी जैसे कोई शब भर का जल्सा है
सहर होते ही ख़्वाबों के घरौंदे टूट जाते हैं
नफ़स अम्बालवी
हमारी राह से पत्थर उठा कर फेंक मत देना
लगी हैं ठोकरें तब जा के चलना सीख पाए हैं
नफ़स अम्बालवी
अपने दराज़-क़द पे बहुत नाज़ था जिन्हें
वो पेड़ आँधियों में ज़मीं से उखड़ गए
नफ़स अम्बालवी
अब उन की ख़्वाब-गाहों में कोई आवाज़ मत करना
बहुत थक-हार कर फ़ुटपाथ पर मज़दूर सोए हैं
नफ़स अम्बालवी