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मंज़ूर हाशमी शायरी | शाही शायरी

मंज़ूर हाशमी शेर

27 शेर

कभी कभी तो किसी अजनबी के मिलने पर
बहुत पुराना कोई सिलसिला निकलता है

मंज़ूर हाशमी




चलो लहू भी चराग़ों की नज़्र कर देंगे
ये शर्त है कि वो फिर रौशनी ज़ियादा करें

मंज़ूर हाशमी




जितने उस के फ़िराक़ में गुज़रे
दिन वो शामिल कहाँ हैं जीने में

मंज़ूर हाशमी




इसी उमीद पे बरसें गुज़ार दीं हम ने
वो कह गया था कि मौसम पलट के आते हैं

मंज़ूर हाशमी




इक ज़माना है हवाओं की तरफ़
मैं चराग़ों की तरफ़ हो जाऊँ

मंज़ूर हाशमी




हमारे साथ भी चलता है रस्ता
हमारे बा'द भी रस्ता चलेगा

मंज़ूर हाशमी




हमारे लफ़्ज़ आइंदा ज़मानों से इबारत हैं
पढ़ा जाएगा कल जो आज वो तहरीर करते हैं

मंज़ूर हाशमी




हदफ़ भी मुझ को बनाना है और मेरे हरीफ़
मुझी से तीर मुझी से कमान माँगते हैं

मंज़ूर हाशमी




फ़िराक़ बिछड़ी हुई ख़ुशबुओं का सह न सकें
तो फूल अपना बदन पारा पारा करते हैं

मंज़ूर हाशमी