सौंपोगे अपने बा'द विरासत में क्या मुझे
बच्चे का ये सवाल है गूँगे समाज से
अशअर नजमी
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शायद मिरी निगाह में कोई शिगाफ़ था
वर्ना उदास रात का चेहरा तो साफ़ था
अशअर नजमी
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तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
लेकिन ये इस्तिआरा भी मंज़ूम कब हुआ
अशअर नजमी
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तुम भी थे सरशार मैं भी ग़र्क-ए-बहर-ए-रंग-ओ-बू
फिर भला दोनों में आख़िर ख़ुद-कशीदा कौन था
अशअर नजमी
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वो जिन की हिजरतों के आज भी कुछ दाग़ रौशन हैं
उन्ही बिछड़े परिंदों को शजर वापस बुलाता है
अशअर नजमी
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ज़हर में डूबी हुई परछाइयों का रक़्स है
ख़ुद से वाबस्ता यहाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
अशअर नजमी
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