मुद्दतों आँखें वज़ू करती रहीं अश्कों से
तब कहीं जा के तिरी दीद के क़ाबिल हुआ मैं
इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’
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रिश्ता बहाल काश फिर उस की गली से हो
जी चाहता है इश्क़ दोबारा उसी से हो
इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’
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ज़माने पर तो खुल कर हँस रहा था
तिरे छूते ही रो बैठा है पागल
इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’
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