हर बच्चा आँखें खोलते ही करता है सवाल मोहब्बत का
दुनिया के किसी गोशे से उसे मिल जाए जवाब तो अच्छा हो
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
आया है इक राह-नुमा के इस्तिक़बाल को इक बच्चा
पेट है ख़ाली आँख में हसरत हाथों में गुल-दस्ता है
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
हम ने तुम्हारे ग़म को हक़ीक़त बना दिया
तुम ने हमारे ग़म के फ़साने बनाए हैं
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
गुलाबों के नशेमन से मिरे महबूब के सर तक
सफ़र लम्बा था ख़ुशबू का मगर आ ही गई घर तक
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
गलियों की उदासी पूछती है घर का सन्नाटा कहता है
इस शहर का हर रहने वाला क्यूँ दूसरे शहर में रहता है
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
दिन अंधेरों की तलब में गुज़रा
रात को शम्अ जला दी हम ने
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
बयाबाँ दूर तक मैं ने सजाया था
मगर वो शहर के रस्ते से आया था
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
वो शख़्स जिस का मुझे नाम भी नहीं आता
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
बारूद के बदले हाथों में आ जाए किताब तो अच्छा हो
ऐ काश हमारी आँखों का इक्कीसवाँ ख़्वाब तो अच्छा हो
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर