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ग़ुलाम हुसैन साजिद शायरी | शाही शायरी

ग़ुलाम हुसैन साजिद शेर

34 शेर

आज खुला दुश्मन के पीछे दुश्मन थे
और वो लश्कर इस लश्कर की ओट में था

ग़ुलाम हुसैन साजिद




अगर है इंसान का मुक़द्दर ख़ुद अपनी मिट्टी का रिज़्क़ होना
तो फिर ज़मीं पर ये आसमाँ का वजूद किस क़हर के लिए है

ग़ुलाम हुसैन साजिद




ढूँड लाया हूँ ख़ुशी की छाँव जिस के वास्ते
एक ग़म से भी उसे दो-चार करना है मुझे

ग़ुलाम हुसैन साजिद




एक ख़्वाहिश है जो शायद उम्र भर पूरी न हो
एक सपने से हमेशा प्यार करना है मुझे

ग़ुलाम हुसैन साजिद




हम मुसाफ़िर हैं गर्द-ए-सफ़र हैं मगर ऐ शब-ए-हिज्र हम कोई बच्चे नहीं
जो अभी आँसुओं में नहा कर गए और अभी मुस्कुराते पलट आएँगे

ग़ुलाम हुसैन साजिद




हिकायत-ए-इश्क़ से भी दिल का इलाज मुमकिन नहीं कि अब भी
फ़िराक़ की तल्ख़ियाँ वही हैं विसाल की आरज़ू वही है

ग़ुलाम हुसैन साजिद




इस अँधेरे में चराग़-ए-ख़्वाब की ख़्वाहिश नहीं
ये भी क्या कम है कि थोड़ी देर सो जाता हूँ मैं

ग़ुलाम हुसैन साजिद




इश्क़ की दस्तरस में कुछ भी नहीं
जान-ए-मन! मेरे बस में कुछ भी नहीं

ग़ुलाम हुसैन साजिद




इश्क़ पर फ़ाएज़ हूँ औरों की तरह लेकिन मुझे
वस्ल का लपका नहीं है हिज्र से वहशत नहीं

ग़ुलाम हुसैन साजिद