देखना ही जो शर्त ठहरी है
फिर तो आँखों में कोई मंज़र हो
अहमद महफ़ूज़
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दामन को ज़रा झटक तो देखो
दुनिया है कुछ और शय नहीं है
अहमद महफ़ूज़
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चढ़ा हुआ था वो दरिया अगर हमारे लिए
तो देखते ही रहे क्यूँ उतर नहीं गए हम
अहमद महफ़ूज़
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बिछड़ के ख़ाक हुए हम तो क्या ज़रा देखो
ग़ुबार जा के उसी कारवाँ से मिलता है
अहमद महफ़ूज़
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