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नग़्मा-ए-इश्क़-ए-बुताँ और ज़रा आहिस्ता | शाही शायरी
naghma-e-ishq-e-butan aur zara aahista

ग़ज़ल

नग़्मा-ए-इश्क़-ए-बुताँ और ज़रा आहिस्ता

अदीब सहारनपुरी

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नग़्मा-ए-इश्क़-ए-बुताँ और ज़रा आहिस्ता
ज़िक्र-ए-नाज़ुक-बदनाँ और ज़रा आहिस्ता

मेरे महबूब की यादों के भड़कते हैं चराग़
ऐ नसीम-ए-गुज़राँ और ज़रा आहिस्ता

जिस तरफ़ से वो गुज़रते हैं सदा आती है
ऐ क़रार-ए-दिल-ओ-जाँ और ज़रा आहिस्ता

दिल हर इक गाम पे लोगों ने बिछा रक्खे हैं
और ऐ सर्व-ए-रवाँ और ज़रा आहिस्ता

कूचा-ए-दोस्त में आहिस्ता-रवी के बा-वस्फ़
दिल ये कहता है याँ और ज़रा आहिस्ता

उन पे मौज-ए-नफ़स-ए-गुल भी गिराँ गुज़रे है
पुर्सिश-ए-ग़म-ज़दगाँ और ज़रा आहिस्ता

बाँध कर अहद-ए-वफ़ा कोई गया है मुझ से
ऐ मिरी उम्र-ए-रवाँ और ज़रा आहिस्ता

कम इबादत से नहीं ज़िक्र बुतों का भी 'अज़ीज़'
बारे तौसीफ़-ए-बुताँ और ज़रा आहिस्ता