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महफ़िल-आरा थे मगर फिर कम-नुमा होते गए | शाही शायरी
mahfil-ara the magar phir kam-numa hote gae

ग़ज़ल

महफ़िल-आरा थे मगर फिर कम-नुमा होते गए

मुनीर नियाज़ी

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महफ़िल-आरा थे मगर फिर कम-नुमा होते गए
देखते ही देखते हम क्या से क्या होते गए

ना-शनासी दहर की तन्हा हमें करती गई
होते होते हम ज़माने से जुदा होते गए

मुंतज़िर जैसे थे दर शहर-ए-फ़िराक़-आसार के
इक ज़रा दस्तक हुई दर दम में वा होते गए

हर्फ़ पर्दा-पोश थे इज़हार-ए-दिल के बाब में
हर्फ़ जितने शहर में थे हर्फ़-ए-ला होते गए

वक़्त किस तेज़ी से गुज़रा रोज़-मर्रा में 'मुनीर'
आज कल होता गया और दिन हवा होते गए