दिल जब से तिरे हिज्र में बीमार पड़ा है
जीने से ख़फ़ा जान से बे-ज़ार पड़ा है
सौदा न बना गेसू-ए-जानाँ से तो क्या ग़म
ले लेंगे कहीं और से बाज़ार पड़ा है
परहेज़ तप-ए-हिज्र से है तुझ को जो ऐ दिल
तू और भी आगे कभी बीमार पड़ा है
फ़रमाइए रोके से रुके हैं कभी आशिक़
दरवाज़े पे क़ुफ़्ल आप के सौ बार पड़ा है
मैं दैर ओ हरम हो के तिरे कूचे में पहुँचा
दो मंज़िलों का फेर बस ऐ यार पड़ा है
की तर्क-ए-मोहब्बत तो लिया दर्द-ए-जिगर मोल
परहेज़ से दिल और भी बीमार पड़ा है
तौक़ीर नहीं अंजुमन-ए-ख़ास में दिल की
शीशा तिरे मय-ख़ाना में बेकार पड़ा है
कुछ शाम-ए-जुदाई में सुझाई नहीं देता
पर्दा ख़िरद ओ होश पे ऐ यार पड़ा है
'जौहर' कहीं बिकती ही नहीं जिंस-ए-मोहब्बत
क्या क़हत वफ़ा का सर-ए-बाज़ार पड़ा है
ग़ज़ल
दिल जब से तिरे हिज्र में बीमार पड़ा है
लाला माधव राम जौहर