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जर्ब-उल-Masal शायरी | शाही शायरी

जर्ब-उल-Masal

17 शेर

न मैं समझा न आप आए कहीं से
पसीना पोछिए अपनी जबीं से

अनवर देहलवी




वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था
वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़




ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम
मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं

इमाम बख़्श नासिख़




मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस
ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं

जौन एलिया




दामन पे कोई छींट न ख़ंजर पे कोई दाग़
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो

कलीम आजिज़




गो क़यामत से पेशतर न हुई
तुम न आए तो क्या सहर न हुई

मेला राम वफ़ा




उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे

Momin all your life in idol worship you did spend
How can you be a Muslim say now towards the end?

मोमिन ख़ाँ मोमिन