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Dair-ओ-हरम शायरी | शाही शायरी

Dair-ओ-हरम

11 शेर

कभी तो दैर-ओ-हरम से तू आएगा वापस
मैं मय-कदे में तिरा इंतिज़ार कर लूँगा

अब्दुल हमीद अदम




शौक़ कहता है पहुँच जाऊँ मैं अब काबे में जल्द
राह में बुत-ख़ाना पड़ता है इलाही क्या करूँ

अमीर मीनाई




नहीं दैर ओ हरम से काम हम उल्फ़त के बंदे हैं
वही काबा है अपना आरज़ू दिल की जहाँ निकले

असग़र गोंडवी




दैर-ओ-हरम को देख लिया ख़ाक भी नहीं
बस ऐ तलाश-ए-यार न दर-दर फिरा मुझे

बेखुद बदायुनी




दैर ओ काबा में भटकते फिर रहे हैं रात दिन
ढूँढने से भी तो बंदों को ख़ुदा मिलता नहीं

दत्तात्रिया कैफ़ी




ये साबित है कि मुतलक़ का तअय्युन हो नहीं सकता
वो सालिक ही नहीं जो चल के ता-दैर-ओ-हरम ठहरे

हबीब मूसवी




इस तरफ़ दैर उधर काबा किधर को जाऊँ
इस दो-राहे में कहाँ यार रहा करता है

लाला माधव राम जौहर