बस्तियों का उजड़ना बसना क्या
बे-झिजक क़त्ल-ए-आम करता जा
मज़हर इमाम
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अस्र-ए-नौ मुझ को निगाहों मैं छुपा कर रख ले
एक मिटती हुई तहज़ीब का सरमाया हूँ
मज़हर इमाम
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अक्सर ऐसा भी मोहब्बत में हुआ करता है
कि समझ-बूझ के खा जाता है धोका कोई
मज़हर इमाम
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अब उस को सोचते हैं और हँसते जाते हैं
कि तेरे ग़म से तअल्लुक़ रहा है कितनी देर
मज़हर इमाम
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अब तो कुछ भी याद नहीं है
हम ने तुम को चाहा होगा
मज़हर इमाम
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अब किसी राह पे जलते नहीं चाहत के चराग़
तू मिरी आख़िरी मंज़िल है मिरा साथ न छोड़
मज़हर इमाम
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