गर्मी ने कुछ आग और भी सीने में लगाई
हर तौर ग़रज़ आप से मिलना ही कम अच्छा
इंशा अल्लाह ख़ान
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दे एक शब को अपनी मुझे ज़र्द शाल तू
है मुझ को सूँघने के हवस सो निकाल तू
इंशा अल्लाह ख़ान
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दहकी है आग दिल में पड़े इश्तियाक़ की
तेरे सिवाए किस से हो इस का इलाज आज
इंशा अल्लाह ख़ान
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छेड़ने का तो मज़ा जब है कहो और सुनो
बात में तुम तो ख़फ़ा हो गए लो और सुनो
इंशा अल्लाह ख़ान
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चंद मुद्दत को फिराक़-ए-सनम-ओ-दैर तो है
आओ काबा कभी देख आएँ न इक सैर तो है
इंशा अल्लाह ख़ान
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बैठता है जब तुंदीला शैख़ आ कर बज़्म में
इक बड़ा मटका सा रहता है शिकम आगे धरा
इंशा अल्लाह ख़ान
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