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शरारे | शाही शायरी
sharare

नज़्म

शरारे

असरार-उल-हक़ मजाज़

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ख़ुद को बहलाना था आख़िर ख़ुद को बहलाता रहा
मैं ब-ईं सोज़-ए-दरूँ हँसता रहा गाता रहा

मुझ को एहसास-ए-फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू होता रहा
मैं मगर फिर भी फ़रेब-ए-रंग-ओ-बू खाता रहा

मेरी दुनिया-ए-वफ़ा में क्या से क्या होने लगा
इक दरीचा बंद मुझ पर एक वा होने लगा

इक निगार-ए-नाज़ की फिरने लगीं आँखें 'मजाज़'
इक बुत-ए-काफ़िर का दिल दर्द-आश्ना होने लगा

ऐन हंगाम-ए-तरब रूह-ए-तरब थर्रा गई
दफ़अतन दिल के उफ़ुक़ पर इक घटा सी छा गई

एक आग़ोश-ए-तमन्ना का तक़ाज़ा देख कर
एक दिल की सर्द-मेहरी भी मुझे याद आ गई

मुजरिम-ए-सरताबी-ए-हुस्न-ए-जवाँ हो जाइए
गुल-फ़िशानी ता-कुजा शोला-फ़िशाँ हो जाइए

खाईएगा इक निगाह-ए-लुत्फ़ का कब तक फ़रेब
कोई अफ़्साना बना कर बद-गुमाँ हो जाइए