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ज़िंदगी ख़ाक में भी थी तिरे दीवाने से | शाही शायरी
zindagi KHak mein bhi thi tere diwane se

ग़ज़ल

ज़िंदगी ख़ाक में भी थी तिरे दीवाने से

मेला राम वफ़ा

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ज़िंदगी ख़ाक में भी थी तिरे दीवाने से
अब न उट्ठेगा बगूला कोई वीराने से

इस क़दर हो गई कसरत तिरे दीवानों की
क़ैस घबरा के चला शहर को वीराने से

जल-मरा आग मोहब्बत की इसे कहते हैं
जलना देखा न गया शम्अ का परवाने से

किस की बेगाना-वशी से ये तहय्युर आया
कि अब अपने भी नज़र आते हैं बेगाने से

शैख़ साहब भी हुए मोतक़िद-ए-पीर-ए-मुग़ाँ
आज ये ताज़ा ख़बर आई है मय-ख़ाने से

इतनी तौहीन न कर मेरी बला-नोशी की
साक़िया मुझ को न दे माप के पैमाने से

ऐ 'वफ़ा' अपने भी जब आँख चुरा लेते हैं
बे-रुख़ी का हो गिला क्या किसी बेगाने से