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ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है | शाही शायरी
ye kya tilism hai duniya pe bar guzri hai

ग़ज़ल

ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है

सय्यद आबिद अली आबिद

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ये क्या तिलिस्म है दुनिया पे बार गुज़री है
वो ज़िंदगी जो सर-ए-रहगुज़ार गुज़री है

गुलों की गुम-शुदगी से सुराग़ मिलता है
कहीं चमन से नसीम-ए-बहार गुज़री है

कहीं सहर का उजाला हुआ है हम-नफ़सो
कि मौज-ए-बर्क़ सर-ए-शाख़-सार गुज़री है

रहा है ये सर-ए-शोरीदा मिस्ल-ए-शोला बुलंद
अगरचे मुझ पे क़यामत हज़ार गुज़री है

ये हादिसा भी हुआ है कि इश्क़-ए-यार की याद
दयार-ए-क़ल्ब से बेगाना-वार गुज़री है

उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा का था इश्तियाक़ बहुत
उन्हीं को अर्ज़-ए-वफ़ा ना-गवार गुज़री है

हरीम-ए-शौक़ महकता है आज तक 'आबिद'
यहाँ से निकहत-ए-गेसू-ए-यार गुज़री है