ये जो चुपके से आए बैठे हैं
लाख फ़ित्ने उठाए बैठे हैं
वो नहीं हैं तो दर्द को उन के
सीने से हम लगाए बैठे हैं
ये भी कुछ जी में आ गई होगी
क्या वो मेरे बिठाए बैठे हैं
तज़्किरा वस्ल का नहीं ख़ाली
वो भी कुछ लुत्फ़ पाए बैठे हैं
मुझ को मारा है पर ख़जालत से
वो भी गर्दन झुकाए बैठे हैं
रंग जमता है याँ न आने का
या'नी मेहंदी लगाए बैठे हैं
मुझ को महफ़िल में देख कर बोले
आप याँ क्यूँ कि आए बैठे हैं
ख़ैर हो हैं बिगाड़ के आसार
कुछ वो मुँह को बनाए बैठे हैं
ग़म हमें खा रहा है तो क्या ग़म
हम भी तो ग़म को खाए बैठे हैं
ज़द में गर है अदू तो हो वो तो
घात मुझ पर लगाए बैठे हैं
खोए जाने का अपने ध्यान नहीं
कुछ तो ऐसा ही पाए बैठे हैं
शर्म से हैं वो लाख पर्दे में
गो मिरे पास आए बैठे हैं
शम्अ साँ गो घुले ही जाते हैं
उस से पर लौ लगाए बैठे हैं
उस गली में बसान-ए-नक़्श-ए-क़दम
हम भी पाँव जमाए बैठे हैं
हो न ऐ शम्अ हुस्न पर नाज़ाँ
वो भी महफ़िल में आए बैठे हैं
शोख़ियाँ ख़ुद हैं पर्दा-दर उन की
क्यूँ वो मुँह को छुपाए बैठे हैं
फ़र्द-ए-बातिल समझ के दुनिया को
नक़्श-ए-हस्ती मिटाए बैठे हैं
क्या है उस ख़ुश-ख़िराम की आमद
फ़ित्ने जो जाए जाए बैठे हैं
तूर जिस आग ने जलाया था
हम वो दिल में छुपाए बैठे हैं
चश्मकें ग़ैर से दिखा देंगे
हम भी आँखें लड़ाए बैठे हैं
कल तक़द्दुस-मआब मस्जिद थे
आज रिंदों में आए बैठे हैं
ला-उबाली ख़िराम है 'मजरूह'
वज़्अ' कैसी बनाए बैठे हैं
ग़ज़ल
ये जो चुपके से आए बैठे हैं
मीर मेहदी मजरूह