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ये हुस्न है झरनों में न है बाद-ए-चमन में | शाही शायरी
ye husn hai jharnon mein na hai baad-e-chaman mein

ग़ज़ल

ये हुस्न है झरनों में न है बाद-ए-चमन में

बशर नवाज़

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ये हुस्न है झरनों में न है बाद-ए-चमन में
जिस हुस्न से है चाँद रवाँ नील-गगन में

ऐ काश कभी क़ैद भी होता मिरे फ़न में
वो नग़्मा-ए-दिल-कश कि है आवारा पवन में

उठ कर तिरी महफ़िल से अजब हाल हुआ है
दिल अपना बहलता है न बस्ती में न बन में

इक हुस्न-ए-मुजस्सम का वो पैराहन-ए-रंगीं
ढल जाए धनक जैसे किसी चंद्र-किरन में

ऐ निकहत-ए-आवारा ज़रा तू ही बता दे
है ताज़गी फूलों में कि उस शोख़ के तन में

देखा था कहाँ उस को हमें याद नहीं है
तस्वीर सी फिरती है मगर अब भी नयन में

इस दौर में आसाँ तो न थी ऐसी ग़ज़ल भी
कुछ फ़न अभी ज़िंदा है मगर मुल्क-ए-दकन में