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यार ने हम से बे-अदाई की | शाही शायरी
yar ne humse be-adai ki

ग़ज़ल

यार ने हम से बे-अदाई की

मीर तक़ी मीर

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यार ने हम से बे-अदाई की
वस्ल की रात में लड़ाई की

बाल-ओ-पर भी गए बहार के साथ
अब तवक़्क़ो नहीं रिहाई की

कुल्फ़त-ए-रंज-ए-इश्क़ कम न हुई
मैं दवा की बहुत शिफ़ाई की

तुर्फ़ा रफ़्तार के हैं रफ़्ता सब
धूम है उस की रहगिराई की

ख़ंदा-ए-यार से तरफ़ हो कर
बर्क़ ने अपनी जग-हँसाई की

कुछ मुरव्वत न थी उन आँखों में
देख कर क्या ये आश्नाई की

वस्ल के दिन को कार-ए-जाँ न खिंचा
शब न आख़िर हुई जुदाई की

मुँह लगाया न दुख़्तर-ए-रज़ को
मैं जवानी में पारसाई की

जौर उस संग-दिल के सब न खिंचे
उम्र ने सख़्त बेवफ़ाई की

कोहकन क्या पहाड़ तोड़ेगा
इश्क़ ने ज़ोर-आज़माई की

चुपके उस की गली में फिरते रहे
देर वाँ हम ने बे-नवाई की

इक निगह में हज़ार जी मारे
साहिरी की कि दिलरुबाई की

निस्बत उस आस्ताँ से कुछ न हुई
बरसों तक हम ने जब्हा-साई की

'मीर' की बंदगी में जाँ-बाज़ी
सैर सी हो गई ख़ुदाई की