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याँ होश से बे-ज़ार हुआ भी नहीं जाता | शाही शायरी
yan hosh se be-zar hua bhi nahin jata

ग़ज़ल

याँ होश से बे-ज़ार हुआ भी नहीं जाता

फ़ानी बदायुनी

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याँ होश से बे-ज़ार हुआ भी नहीं जाता
उस बज़्म में हुश्यार हुआ भी नहीं जाता

कहते हो कि हम वादा-ए-पुर्सिश नहीं करते
ये सुन के तो बीमार हुआ भी नहीं जाता

दुश्वारी-ए-इंकार से तालिब नहीं डरते
यूँ सहल तो इक़रार हुआ भी नहीं जाता

आते हैं अयादत को तो करते हैं नसीहत
अहबाब से ग़म-ख़्वार हुआ भी नहीं जाता

जाते हुए खाते हो मिरी जान की क़समें
अब जान से बे-ज़ार हुआ भी नहीं जाता

ग़म क्या है अगर मंज़िल-ए-जानाँ है बहुत दूर
क्या ख़ाक-ए-रह-ए-यार हुआ भी नहीं जाता

देखा न गया उस से तड़पते हुए दिल को
ज़ालिम से जफ़ाकार हुआ भी नहीं जाता

ये तुर्फ़ा सितम है कि सितम भी है करम भी
अब ख़ूगर-ए-आज़ार हुआ भी नहीं जाता