EN اردو
वो मेरी जाँ के सदफ़ में गुहर सा रहता है | शाही शायरी
wo meri jaan ke sadaf mein guhar sa rahta hai

ग़ज़ल

वो मेरी जाँ के सदफ़ में गुहर सा रहता है

फ़रहत एहसास

;

वो मेरी जाँ के सदफ़ में गुहर सा रहता है
में उस को तोड़ न डालूँ ये डर सा रहता है

वो चेहरा एक शिफा-ख़ाना है मिरी ख़ातिर
वो हो तो जैसे कोई चारागर सा रहता है

मैं उस निगाह के हमराह जब से आया हूँ
मुझे न जाने कहाँ का सफ़र सा रहता है

बड़ा वसीअ है उस के जमाल का मंज़र
वो आईने में तो बस मुख़्तसर सा रहता है

मिरी ज़मीं को मयस्सर है आसमाँ उस का
कहीं भी जाऊँ मिरे साथ घर सा रहता है