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वो जो इक शर्त थी वहशत की उठा दी गई क्या | शाही शायरी
wo jo ek shart thi wahshat ki uTha di gai kya

ग़ज़ल

वो जो इक शर्त थी वहशत की उठा दी गई क्या

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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वो जो इक शर्त थी वहशत की उठा दी गई क्या
मेरी बस्ती किसी सहरा में बसा दी गई क्या

वही लहजा है मगर यार तिरे लफ़्ज़ों में
पहले इक आग सी जलती थी बुझा दी गई क्या

जो बढ़ी थी कि कहीं मुझ को बहा कर ले जाए
मैं यहीं हूँ तो वही मौज बहा दी गई क्या

पाँव में ख़ाक की ज़ंजीर भली लगने लगी
फिर मिरी क़ैद की मीआद बढ़ा दी गई क्या

देर से पहुँचे हैं हम दूर से आए हुए लोग
शहर ख़ामोश है सब ख़ाक उड़ा दी गई क्या