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वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए | शाही शायरी
wafa ka ahd tha dil ko sambhaalne ke liye

ग़ज़ल

वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए

एहसान दानिश

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वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए
वो हँस पड़े मुझे मुश्किल में डालने के लिए

बँधा हुआ है बहारों का अब वहीं ताँता
जहाँ रुका था मैं काँटे निकालने के लिए

कोई नसीम का नग़्मा कोई शमीम का राग
फ़ज़ा को अम्न के क़ालिब में ढालने के लिए

ख़ुदा न कर्दा ज़मीं पाँव से अगर खिसकी
बढ़ेंगे तुंद बगूले सँभालने के लिए

उतर पड़े हैं किधर से ये आँधियों के जुलूस
समुंदरों से जज़ीरे निकालने के लिए

तिरे सलीक़ा-ए-तरतीब-ए-नौ का क्या कहना
हमीं थे क़र्या-ए-दिल से निकालने के लिए

कभी हमारी ज़रूरत पड़ेगी दुनिया को
दिलों की बर्फ़ को शो'लों में ढालने के लिए

ये शो'बदे ही सही कुछ फ़ुसूँ-गरों को बुलाओ
नई फ़ज़ा में सितारे उछालने के लिए

है सिर्फ़ हम को तिरे ख़ाल-ओ-ख़द का अंदाज़ा
ये आइने तू हैं हैरत में डालने के लिए

न जाने कितनी मसाफ़त से आएगा सूरज
निगार-ए-शब का जनाज़ा निकालने के लिए

मैं पेश-रौ हूँ इसी ख़ाक से उगेंगे चराग़
निगाह-ओ-दिल के उफ़ुक़ को उजालने के लिए

फ़सील-ए-शब से कोई हाथ बढ़ने वाला है
फ़ज़ा की जेब से सूरज निकालने के लिए

कुएँ में फेंक के पछता रहा हूँ ऐ 'दानिश'
कमंद थी जो मिनारों पर डालने के लिए