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तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा | शाही शायरी
tujh lab ki sifat lal-e-badaKHshan sun kahunga

ग़ज़ल

तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा

वली मोहम्मद वली

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तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा
जादू हैं तिरे नैन ग़ज़ालाँ सूँ कहूँगा

दी बादशही हक़ ने तुझे हुस्न-नगर की
यू किश्वर-ए-ईराँ में सुलैमाँ सूँ कहूँगा

तारीफ़ तिरे क़द की अलिफ़-वार सिरीजन
जा सर्व-ए-गुलिस्ताँ कूँ ख़ुश-अल्हाँ सूँ कहूँगा

मुझ पर न करो ज़ुल्म तुम ऐ लैली-ए-ख़ूबाँ
मजनूँ हूँ तिरे ग़म कूँ बयाबाँ सूँ कहूँगा

देखा हूँ तुझे ख़्वाब में ऐ माया-ए-ख़ूबी
इस ख़्वाब को जा यूसुफ़-ए-कनआँ सूँ कहूँगा

जलता हूँ शब-ओ-रोज़ तिरे ग़म में ऐ साजन
ये सोज़ तिरा मशअल-ए-सोज़ाँ सूँ कहूँगा

यक नुक़्ता तिरे सफ़्हा-ए-रुख़ पर नईं बेजा
इस मुख को तिरे सफ़्हा-ए-क़ुरआँ सूँ कहूँगा

क़ुर्बान परी मुख पे हुई चोब सी जल कर
ये बात अजाइब मह-ए-ताबाँ सूँ कहूँगा

बे-सब्र न हो ऐ 'वली' इस दर्द सूँ हरगिज़
जलता हूँ तिरे दर्द में दरमाँ सूँ कहूँगा