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सुब्ह बालीं पे ये कहता हुआ ग़म-ख़्वार आया | शाही शायरी
subh baalin pe ye kahta hua gham-KHwar aaya

ग़ज़ल

सुब्ह बालीं पे ये कहता हुआ ग़म-ख़्वार आया

जोश मलीहाबादी

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सुब्ह बालीं पे ये कहता हुआ ग़म-ख़्वार आया
उठ कि फ़रियाद-रस-ए-आशिक़-ए-बीमार आया

बख़्त-ए-ख़्वाबीदा गया ज़ुल्मत-ए-शब के हमराह
सुब्ह का नूर लिए दौलत-ए-बेदार आया

ख़ैर से बाग़ में फिर ग़ुंचा-ए-गुल-रंग खिला
शुक्र है दौर में फिर साग़र-ए-सरशार आया

झूम ऐ तिश्ना-ए-गुल-बाँग निगार-ए-इशरत
कि लब-ए-यार लिए चश्मा-ए-गुफ़्तार आया

शुक्र-ए-ईज़द कि वो सरख़ैल-ए-मसीहा-नफ़साँ
ज़ुल्फ़ बर-दोश पा-ए-पुर्सिश-ए-बीमार आया

रुख़्सत ऐ शिकवा-ए-क़िस्मत कि सर-ए-बज़्म-ए-नशात
नासिख़-ए-मसअला-ए-अन्दक-ओ-बिस्यार आया

लिल्लाहिल-हम्द कि गुलज़ार में हंगाम-ए-सुबूह
हुक्म-ए-आज़ादी-ए-मुर्ग़ान-ए-गिरफ़्तार आया

ग़ुंचा-ए-बस्ता चटक जाग उठी मौज-ए-सबा
शोला-ए-हुस्न भड़क मिस्र का बाज़ार आया

ख़ुश हो ऐ इश्क़ कि फिर हुस्न हुआ माइल-ए-नाज़
मुज़्दा ऐ जिंस-ए-मोहब्बत कि ख़रीदार आया

ऐ नज़र शुक्र बजा ला कि खुली ज़ुल्फ़-ए-दराज़
ऐ सदफ़ आँख उठा अब्र-ए-गुहर-बार आया

बादबाँ नाज़ से लहरा के चली बाद-ए-मुराद
कारवाँ ईद मना क़ाफ़िला-सालार आया

ख़ुश हो ऐ गोश कि जिब्रील-ए-तरन्नुम चहका
मुज़्दा ऐ चश्म कि पैग़म्बर-ए-अनवार आया

ख़ुश हो ऐ पीर-ए-मुग़ाँ 'जोश' हुआ नग़्मा-फ़रोश
मुज़्दा ऐ दुख़्तर-ए-रज़ रिंद-ए-क़दह-ख़्वार आया