सर को तन से मिरे जुदा कीजे
ये भी झगड़ा है फ़ैसला कीजे
मुझ पे तोहमत सनम-परस्ती की
शैख़ साहब ख़ुदा ख़ुदा कीजे
लाल को उस के लब से क्या निस्बत
ये भी इक बात है सुना कीजे
लो वो आते हैं जल्द हज़रत-ए-दिल
फ़िक्र-ए-सब्र-ए-गुरेज़-पा कीजे
हम ग़नीमत उसी को समझेंगे
लो वफ़ा वादा-ए-जफ़ा कीजे
अपना कीना बनूँ कि याद-ए-रक़ीब
किस तरह उस के दिल में जा कीजे
याँ तो मतलब ही कुछ नहीं रखते
जो किसी से कहें रवा कीजे
मुद्दई घात ही में रहते हैं
क्यूँ कि वाँ अर्ज़-ए-मुद्दआ कीजे
दुख जो 'मजरूह' ने सहे ग़म से
उस का क्या शरह-ए-माजरा कीजे
मर गया वो प याद आता है
उस का कहना कि आह क्या कीजे
सख़्त मुश्किल है यार का खुलना
ये गिरह किस तरह से वा कीजे
सब्र के फ़ाएदे बहुत हैं वले
दिल ही बस में न हो तो क्या कीजे
ग़ैर की पासबाँ की दरबाँ की
किस की जा जा के इल्तिजा कीजे
उस की वो आँख अब नहीं 'मजरूह'
जल्द कुछ अपना सूझता कीजे
ग़ज़ल
सर को तन से मिरे जुदा कीजे
मीर मेहदी मजरूह